अंश की कलम से...
काश लिख पाती....
एक लेखक हो के भी,
नही लिख पाई,
उसके आँखों की शरारतें...
जब बोलना शुरू करता तो,
बस बोलता ही रहता...
किसी शांत नदी की भांति,
उसमे समाधि लेती..
एक डायरी दी थी उसने,
और कहा था-
इसमें प्रेम लिखना....
कभी हिम्मत ना कर पाई,
कुछ लिखने का....
एक बहुत बड़ा प्रश्न था,
समक्ष....
उसे किस नाम से,
सम्बोधित करती...
कोई तो ना था वो,
और जो बनाना चाहता था,
वो मेरी आत्मा को,
स्वीकार ना था....
कैसे लौटा पाऊंगी,
वो कोरी डायरी....
कैसे समझा पाऊंगी....
हर रिश्ता गलत नही होता,
वावजूद हर रिश्तें का,
कोई नाम नही होता....
प्रतिभा श्रीवास्तव अंश
भोपाल
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